New Delhi, 15 जुलाई . महाराष्ट्र के खड़की में 16 जुलाई 1968 को एक गरीब परिवार के घर तीन लड़कों के बाद चौथे बेटे का जन्म हुआ. परिवार को उम्मीद थी कि यह बेटा उनकी गरीबी दूर करेगा, ऐसे में बच्चे का नाम ‘धनराज’ रखा गया.
‘खड़की’ को ‘हॉकी का गढ़’ कहा जाता है, जहां धनराज पिल्लै के पिता नागालिंगम पिल्लै ग्राउंड्समैन थे. तंगहाली में परिवार का गुजर-बसर हो रहा था. पिता की तनख्वाह इतनी नहीं थी कि परिवार को पर्याप्त सुविधाएं मुहैया करवा सकें.
धनराज का बचपन हॉकी के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा. शाम को वह अक्सर उन बच्चों को हॉकी खेलते देखा करते जो अक्सर उनके घर के पास एकजुट होकर चमचमाती स्टिक के साथ खेलते थे. धनराज के बड़े भाई रमेश और अनंत हॉकी खिलाड़ी थे. वही धनराज को इस खेल के लिए प्रेरित करते थे. धनराज ने इस खेल को करीब से देखा और हॉकी सीखने की ठान ली थी.
आखिरकार धनराज एक पुरानी-सी हॉकी स्टिक के साथ इन बच्चों के बीच खेलने जाने लगे. लेकिन उन्हें नई स्टिक चाहिए थी. धनराज ने जब यह बात अपने भाई को बताई, तो उन्होंने नई हॉकी स्टिक पाने के लिए प्रैक्टिस करते रहने को कहा. हकीकत यह थी कि परिवार के पास इसके लिए पैसे नहीं थे, लेकिन बड़े भाई नहीं चाहते थे कि धनराज का मनोबल टूटे. धनराज भी नई हॉकी स्टिक की चाहत में प्रैक्टिस करते हुए अपनी स्किल्स को निखारते गए.
रमेश पिल्लै Mumbai के एक क्लब की ओर से खेल रहे थे. उनके सपोर्ट से धनराज भी Mumbai आ गए. उस समय टीम को एक खिलाड़ी की जरूरत थी. ऐसे में धनराज को एक्स्ट्रा खिलाड़ियों में शामिल कर दिया गया, लेकिन धीरे-धीरे अपने शानदार खेल के साथ धनराज टीम के अहम खिलाड़ी बन गए.
साल 1987 में संजय गांधी टूर्नामेंट में दिल्ली के मैदान पर लोगों ने इस लंबे से दुबले-पतले लड़के को देखा, जिसकी तकनीक कमाल की थी. राजिंदर उस दौर के मशहूर खिलाड़ी थे, लेकिन धनराज ने उनके चंगुल से बॉल निकालकर शानदार गोल दागे. धनराज के शॉट बुलेट जैसी रफ्तार से आ रहे थे. धनराज इस मैच के बेस्ट प्लेयर रहे और नेशनल हॉकी चैंपियनशिप में अपनी जगह पक्की कर ली.
Mumbai की ओर से खेलते हुए धनराज पिल्लै ने कई पेनाल्टी कॉर्नर को गोल में तब्दील किया. इस शानदार प्रदर्शन को देखते हुए साल 1989 में धनराज पिल्लै को अपना इंटरनेशनल मैच खेलने का मौका मिला. यह एल्विन एशिया कप था, जो New Delhi में खेला जा रहा था.
धनराज पिल्लै 1994 वर्ल्ड कप के दौरान वर्ल्ड इलेवन टीम में शामिल होने वाले एकमात्र भारतीय थे. उन्होंने मलेशिया, इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों के क्लब की ओर से भी खेला.
धनराज पिल्लै ने अपने शानदार खेल के साथ टीम की कमान थाम ली. भारत ने साल 1998 में धनराज पिल्लै की कप्तानी में एशियन गेम्स जीता, जबकि 2003 में एशिया कप पर कब्जा किया.
फील्ड हॉकी के लीजेंड धनराज पिल्लै ने अपने करियर में चार ओलंपिक (1992, 1996, 2000 और 2004), चार विश्व कप (1990, 1994, 1998 और 2002) और चार चैंपियंस ट्रॉफी (1995, 1996, 2002 और 2003) खेले. उन्होंने साल 1990, 1994, 1998 और 2002 में एशियन गेम्स भी खेला.
धनराज पिल्लै को 1999-2000 के लिए देश के सर्वोच्च खेल सम्मान ‘राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया, जिसके बाद साल 2001 में उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया.
साल 2004 में धनराज पिल्लै ने 36 साल की उम्र में अंतरराष्ट्रीय करियर से संन्यास ले लिया. 16 साल के करियर में उन्होंने अपनी हॉकी के जादू से फैंस को मंत्रमुग्ध किया.
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आरएसजी/एएस
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