भारत की रेलगाड़ियां सिर्फ सफ़र का साधन नहीं हैं, बल्कि लोगों की भावनाओं से जुड़ी हुई हैं. जब बात वंदे भारत एक्सप्रेस की आती है तो लोग गर्व से कहते हैं “ये हमारी भारतीय रेलवे की शान है.” लेकिन क्या आप जानते हैं कि देश की ये सबसे चर्चित ट्रेन वास्तव में रेलवे की मालिकाना संपत्ति ही नहीं है?
दरअसल वंदे भारत का मालिकाना हक किसी और कंपनी के पास है और रेलवे इसके लिए हर साल मोटी रकम किराए के तौर पर चुकाता है.
रेलवे चलाता है, लेकिन मालिक कोई औरहम सभी यही सोचते हैं कि जो ट्रेनें भारतीय रेलवे चलाती है, वही उसकी मालिक भी होती हैं. स्टेशन, ट्रैक, इंजन, डिब्बे सबकुछ रेलवे का, लेकिन असलियत में ये पूरी तरह सही नहीं है. वंदे भारत, शताब्दी, राजधानी और गतिमान जैसी दर्जनों ट्रेनें सीधे रेलवे की नहीं बल्कि “इंडियन रेलवे फाइनेंस कॉरपोरेशन (IRFC)” के नाम पर रजिस्टर्ड हैं.
IRFC क्या है?IRFC की शुरुआत 1986 में हुई थी. इसे खास तौर पर इसलिए बनाया गया कि रेलवे को फाइनेंस की समस्या से निजात मिल सके.
इसका काम है बाजार से पैसा जुटाना और उस पैसे से रेलवे के लिए नई ट्रेनें और अन्य संसाधन खरीदना या फिर इन ट्रेनों को रेलवे को लीज (किराए) पर देना.
कह सकते है कि रेलवे और IRFC का रिश्ता मकान मालिक और किरायेदार जैसा है. ट्रेन की कीमत IRFC चुकाती है और फिर रेलवे उसे सालों तक किराए पर इस्तेमाल करता है.
वंदे भारत पर भी चुकाना पड़ता है किरायाभारत की सेमी-हाई स्पीड ट्रेन कहे जाने वाले वंदे भारत एक्सप्रेस इसी मॉडल पर चलती है. यात्री जब वंदे भारत का टिकट खरीदते हैं तो उनका पैसा रेलवे तक पहुंचता है. लेकिन उसी ट्रेन को ऑपरेट करने के लिए रेलवे भी हर साल IRFC को मोटी रकम किराए के रूप में देती है. रिपोर्टस के मुताबिक, रेलवे को अपनी ट्रेनों के लीज मॉडल के तहत हर साल लगभग 20,000 करोड़ रुपये चुकाने पड़ते हैं.
रेलवे की 80% ट्रेनें IRFC के पाससिर्फ वंदे भारत ही नहीं, बल्कि रेलवे की लगभग 80 प्रतिशत ट्रेनें IRFC की संपत्ति हैं. इन्हें 30 साल तक के लिए लीज पर दिया जाता है. यह रकम IRFC के राजस्व (Revenue) का बड़ा हिस्सा बनती है. यानी भारत की ज्यादातर ट्रेनें रेलवे की नहीं बल्कि IRFC की हैं, रेलवे सिर्फ उनका परिचालन करता है.
क्यों जरूरी है ये मॉडल?अब सवाल उठता है कि जब रेलवे देश की इतनी बड़ी संस्था है, तो उसे ट्रेनों के लिए बाहरी फाइनेंसिंग की जरूरत क्यों पड़ती है?
दरअसल, वंदे भारत जैसी आधुनिक ट्रेनों को बनाने में करोड़ों-अरबों रुपये की लागत आती है. रेलवे के पास इतनी बड़ी रकम एक बार में खर्च करने की क्षमता नहीं होती.
ऐसे में अगर IRFC न हो तो रेलवे नई ट्रेनों का नेटवर्क तेजी से बढ़ा ही नहीं पाए. लीज मॉडल से रेलवे बिना कर्ज़ का बोझ सीधे अपने सिर लिए, नई-नई हाई-टेक ट्रेनों को यात्रियों तक पहुंचा पा रहा है.
कहां बनती है वंदे भारत?वंदे भारत एक्सप्रेस के डिब्बे चेन्नई स्थित इंटीग्रल कोच फैक्ट्री (ICF) में बनते हैं. निर्माण भारत में होता है, लेकिन ट्रेन का असली मालिक IRFC होता है और इसे चलाने की जिम्मेदारी रेलवे निभाती है.
दरअसल वंदे भारत का मालिकाना हक किसी और कंपनी के पास है और रेलवे इसके लिए हर साल मोटी रकम किराए के तौर पर चुकाता है.
रेलवे चलाता है, लेकिन मालिक कोई औरहम सभी यही सोचते हैं कि जो ट्रेनें भारतीय रेलवे चलाती है, वही उसकी मालिक भी होती हैं. स्टेशन, ट्रैक, इंजन, डिब्बे सबकुछ रेलवे का, लेकिन असलियत में ये पूरी तरह सही नहीं है. वंदे भारत, शताब्दी, राजधानी और गतिमान जैसी दर्जनों ट्रेनें सीधे रेलवे की नहीं बल्कि “इंडियन रेलवे फाइनेंस कॉरपोरेशन (IRFC)” के नाम पर रजिस्टर्ड हैं.
IRFC क्या है?IRFC की शुरुआत 1986 में हुई थी. इसे खास तौर पर इसलिए बनाया गया कि रेलवे को फाइनेंस की समस्या से निजात मिल सके.
इसका काम है बाजार से पैसा जुटाना और उस पैसे से रेलवे के लिए नई ट्रेनें और अन्य संसाधन खरीदना या फिर इन ट्रेनों को रेलवे को लीज (किराए) पर देना.
कह सकते है कि रेलवे और IRFC का रिश्ता मकान मालिक और किरायेदार जैसा है. ट्रेन की कीमत IRFC चुकाती है और फिर रेलवे उसे सालों तक किराए पर इस्तेमाल करता है.
वंदे भारत पर भी चुकाना पड़ता है किरायाभारत की सेमी-हाई स्पीड ट्रेन कहे जाने वाले वंदे भारत एक्सप्रेस इसी मॉडल पर चलती है. यात्री जब वंदे भारत का टिकट खरीदते हैं तो उनका पैसा रेलवे तक पहुंचता है. लेकिन उसी ट्रेन को ऑपरेट करने के लिए रेलवे भी हर साल IRFC को मोटी रकम किराए के रूप में देती है. रिपोर्टस के मुताबिक, रेलवे को अपनी ट्रेनों के लीज मॉडल के तहत हर साल लगभग 20,000 करोड़ रुपये चुकाने पड़ते हैं.
रेलवे की 80% ट्रेनें IRFC के पाससिर्फ वंदे भारत ही नहीं, बल्कि रेलवे की लगभग 80 प्रतिशत ट्रेनें IRFC की संपत्ति हैं. इन्हें 30 साल तक के लिए लीज पर दिया जाता है. यह रकम IRFC के राजस्व (Revenue) का बड़ा हिस्सा बनती है. यानी भारत की ज्यादातर ट्रेनें रेलवे की नहीं बल्कि IRFC की हैं, रेलवे सिर्फ उनका परिचालन करता है.
क्यों जरूरी है ये मॉडल?अब सवाल उठता है कि जब रेलवे देश की इतनी बड़ी संस्था है, तो उसे ट्रेनों के लिए बाहरी फाइनेंसिंग की जरूरत क्यों पड़ती है?
दरअसल, वंदे भारत जैसी आधुनिक ट्रेनों को बनाने में करोड़ों-अरबों रुपये की लागत आती है. रेलवे के पास इतनी बड़ी रकम एक बार में खर्च करने की क्षमता नहीं होती.
ऐसे में अगर IRFC न हो तो रेलवे नई ट्रेनों का नेटवर्क तेजी से बढ़ा ही नहीं पाए. लीज मॉडल से रेलवे बिना कर्ज़ का बोझ सीधे अपने सिर लिए, नई-नई हाई-टेक ट्रेनों को यात्रियों तक पहुंचा पा रहा है.
कहां बनती है वंदे भारत?वंदे भारत एक्सप्रेस के डिब्बे चेन्नई स्थित इंटीग्रल कोच फैक्ट्री (ICF) में बनते हैं. निर्माण भारत में होता है, लेकिन ट्रेन का असली मालिक IRFC होता है और इसे चलाने की जिम्मेदारी रेलवे निभाती है.
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